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Monday, December 25, 2017

कटेहर नरेश हरिसिंह

कटेहर नरेश हरिसिंह ने दी चुनौती कटेहर rohillkhand को ही कहते हैं जाने कितने वंश गुलाम वंश सय्यद वंश मुगल वंश के सुल्तान सेनापति आदि ख़तम हो गए हम को झुकाने में लेकिन रोहिल्ला न झुका था न झुका है और न झुके गाहम रोहिल्ला है इन वीरों के वंशज हैं हम ‘कटेहर’ अपनी स्वतंत्रता प्रेमी भावना के लिए पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों के काल में भी विख्यात रहा था। अब भी उसने अपने इस परंपरागत गुण को यथावत बनाये रखा। वहां के राजा हरिसिंह ने नये मुस्लिम सुल्तान के सिंहासनारूढ़ होने से पूर्व सल्तनत में सिंहासन के लिए मचे घमासान के वर्षों में ही अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। इसलिए इस हिंदू स्वतंत्र शासक का दमन करना मुस्लिम सुल्तान खिज्र खां के लिए अवश्यक हो गया था। फलस्वरूप खिज्र खां ने हरिसिंह को अपने आधीन करने का निर्णय लिया। खिज्र खां ने अपने विश्वससीन ताजुल मुल्क को 1414-15ई में कटेहर पर आक्रमण करने के लिए बड़ी सेना देकर भेजा। राजा हरिसिंह ने विशाल सेना का सामना न करके पीछे हटकर घाटियों मे ंजाना उचित समझा। ताजुल मुल्क ने कटेहर निवासियों को जितना लूट सकता था, या मार सकता था, उतना लूटा भी और मारा भी। तत्पश्चात उसने नदी पार कर खुद कम्पिला, सकिया और बाथम को लूटा। ‘तारीखे मुबारक शाही’ के अनुसार मुस्लिम सेना ने राजा का घाटियों में भी प्रतिरोध किया तो उसने कर देना स्वीकार कर लिया।
हारकर भी राजा ने हार नही मानी इसके पश्चात शाही कि सेना जैसे ही पीछे हटी और राजधानी दिल्ली पहुंचीे तो राजा हरिसिंह ने अपनी स्वतंत्रता की पुन: घोषणा कर दी। अगले वर्ष 1416-17 ई. में ताजुल्मुल्क को राजा हरिसिंह के शौर्य के दमन के लिए पुन: सेना सहित कटेहर की ओर प्रस्थान करना पड़ा। इस बार भी उसने राजा को ‘कर तथा उपहार’ देने के लिए पुन: बाध्य कर किया। राजा ने स्वतंत्र रहने की सौगंध उठा ली थी
राजा ने कर तथा उपहार देकर शत्रु को दिल्ली भेज दिया, पर उसके दिल्ली पहुंचते ही पुन: कटेहर की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। मानो राजा ने स्वतंत्र रहने की सौगंध खा ली थी और उसे सुल्तानों की अधीनता किसी भी सीमा तक स्वीकार्य नही थी। ऐसी परिस्थितियों में पुन: अगले ही वर्ष (1418-1419ई में) कटेहर के हिंदू राजा का मस्तक झुकाने के लिए ताजुल मुल्क पुन: वहां भेजा गया। ताजुल मुल्क अपनी विशाल सेना के साथ दिल्ली से चलकर कटेहर आ धमका। राजा हरिसिंह ने शत्रु के आ धमकने की सूचना पाकर अपने राज्य के खेत खलियानों को स्वयं ही अपनी प्रजा से विनष्ट कराना आरंभ कर दिया। जिससे कि शत्रु को किसी भी प्रकार से अन्नादि उपलब्ध न होने पाये। राजा पुन: आंवला की घाटी में प्रविष्ट हो गया। शाही सेना ने राजा का घाटी तक पीछा किया। फलस्वरूव राजा और शाही सेना के मध्य प्रबल संघर्ष इस घाटी में हुआ। ‘तारीखे मुबारकशाही’ के अनुसार राजा पराजित हुआ और कुमायूं के पर्वत की ओर चला गया। शाही सेना के 20 हजार घुड़सवारों ने उसका पीछा किया, परंतु राजा को पकडऩे में शाही सेेना पुन: असफल रही। राजा से असफल होकर पांच दिन के असफल संग्राम के पश्चात शाही सेना दिल्ली लौट आयी। ध्यान देने योग्य तथ्य ध्यान देने की बात ये है कि दिल्ली लौटी सेना या उसके सेनापति राजा हरिसिंह को परास्त करके उसे बंदी बनाने में हर बार असफल होते रहे और राजा के भय के कारण कभी भी उसके राज्य पर अपना राज्यपाल नियुक्त करने या उसे सीधे अपने साम्राज्य के आधीन लाने का साहस नही दिखाया। फलस्वरूप इस बार भी राजा ने अपने राज्य पर पुन: अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। तब सुल्तान स्वयं कटेहर की ओर सेना लेकर बढ़ा। फरिश्ता का कहना है कि सुल्तान ने कटेहर को नष्ट किया और पुन: दिल्ली लौट आया। परंतु हरिसिंह इसके उपरांत भी स्वतंत्र रूप से शासन करता रहा। इतिहास को ऐसे भी पढ़ा जा सकता है पांच सैनिक अभियानों के लिए एक छोटे से हिंदू राजा ने मुस्लिम सल्तनत को विवश किया, पर्याप्त विनाश झेला और इसके उपरांत भी अपनी स्वतंत्रता को खोया नही यह इतिहास है। इन सैनिक अभियानों से मुस्लिम सल्तनत दुर्बल हुई। क्योंकि हर वर्ष एक बड़ी सेना को सैनिक अभियान के लिए भेजना और कोई विशेष उपलब्धि के बिना ही सेना का यूं ही लौट आना उस युग में बड़ा भारी पड़ता था। राजा ने निश्चित रूप से वीरता पूर्वक मुस्लिम सेना से संघर्ष नही किया, यह हम मानते हैं।परंतु उसके साहस की भी उपेक्षा नही की जा सकती कि शाही सेना के पीठ फेरते ही वह अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर देता था। इस कार्य में कटेहर की धर्मभक्त और स्वतंत्रता प्रेमी हिंदू जनता भी साधुवाद की पात्र थी, क्योंकि उसने भी अपने शासक के विरूद्घ कभी न तो विद्रोह किया और ना ही शाही सेना के सामने समर्पण कर इस्लाम स्वीकार किया। उसने हर बार अपने शासक के निर्णय को उचित माना और उसके निर्णय के साथ अपनी सहमति व्यक्त की। इतिहास को इस दृष्टिकोण से भी पढ़ा जाना अपेक्षित है। सुल्तान को स्वयं चलाना पड़ा सैनिक अभियान यहिया और निजीमुद्दीन अहमद के वर्णनों से स्पष्ट होता है कि सुल्तान मुबारक शाह को 1422-23 ई और 1424 ई में भी कटेहर के लिए सैन्य अभियान चलाना पड़ा था। इन अभियानों का नेतृत्व भी सुल्तान मुबारकशाह ने ही किया था। इस प्रकार मुबारकशाह को हरिसिंह ने कभी भी सुखपूर्वक शासन नही करने दिया। उसे जितना दुखी किया जा सकता था, उतना किया। 1422-23 ई. में तो मुबारकशाह हरिसिंह से कोई कर भी प्राप्त नही कर सकता था। याहिया खां और निजामुद्दीन हमें बताते हैं कि इसके उपरांत सुल्तान गंगा नदी पार कर दोआब क्षेत्र की ओर निकल गया था। कटेहर की ओर फिर कोई नही आया सैय्यद शासक
यह एक तथ्य है कि मुबारकशाह के पश्चात कटेहर की ओर अन्य किसी सैय्यद वंशीय सुल्तान ने पुन: कोई सैन्य अभियान नही चलाया। फलस्वरूप राजा हरिसिंह का साहस कटेहर के लिए वरदान सिद्घ हुआ और यह राज्य अपनी स्वतंत्रता स्थापित किये रखने में सफल रहा। भारत की अद्भुत परंपरा पराजय में भी आत्मनिष्ठ, स्वतंत्रतानिष्ठ, धर्मनिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ और स्वसंस्कृतिनिष्ठ बने रहने की भारत और भारत के लोगों की विश्व में अदभुत परंपरा है। अपने इसी अदभुत गुण के कारण कितने ही आघातों-प्रत्याघातों को सहन करके भी भारत वैसे ही पुनर्जीवित होता रहा, जैसे एक फीनिक्स नाम का पक्षी अपनी राख में से पुनर्जीवित हो उठता है। अलाउद्दीन के काल तक जितने परिश्रम से यहां मुस्लिम साम्राज्य खड़ा किया जा रहा था, उतने पुनरूज्जीवी पराक्रम के प्रत्याघात से हिंदू शक्ति उसे भूमिसात करने का अतुलनीय प्रयास कर रही थी। उसी पुनरूज्जीवी पराक्रम के प्रत्याघात की पताका का प्रतीक राजा हरिसिंह कटेहर में बन गया था। जिस शक्ति का प्रयोग मुस्लिम सुल्तान देश के अन्य भागों में हिंदू पराक्रम को पराजित करने के लिए कर सकते थे, उसे बार-बार हरिसिंह कटेहर में व्यर्थ में ही व्यय करा डालता था। शत्रु पराभव की ओर चल दिया यह ऐसा काल था जिसमें भारत की हिंदू शक्ति ने अपने पराक्रम से शत्रु के विजय अभियानों पर तो पूर्ण विराम लगा ही दिया था, साथ ही शत्रु को पराभव की ओर निर्णायक रूप से धकेलने का भी कार्य किया। क्योंकि इसके पश्चात पूरे देश में दिल्ली की सल्तनत पुन: उस ऊंचाई तक नही पहुंच पायी जिस ऊंचाई तक उसने अलाउद्दीन के काल में अपना विस्तार कर लिया था।
यह प्राचीन पराक्रम की प्रतिच्छाया थी सर ऑरेल स्टीन (1862-1943ई.) हंगरी निवासी थे। जिन्होंने भारत के पराक्रमी और वैभव संपन्न अतीत पर व्यापक अनुसंधान किया था। उनके अनुसंधानात्मक कार्यों से भारत के विषय में लोगों के ज्ञान में पर्याप्त वृद्घि भी हुई। वह लिखते हैं :-‘‘भारतीय सांस्कृतिक प्रभाव के उत्तर दिशा में मध्य एशिया से लेकर दक्षिण में इण्डोनेशिया तक और पर्शिया की सीमा से लेकर चीन तथा जापान तक विशाल विस्तार ने यह सिद्घ कर दिया है कि प्राचीन भारत सभ्यता का एक दीप्तिमान केन्द्र था जिसे अपने धार्मिक विचार तथा कला साहित्य द्वारा उन वृहत्तर एशिया के एक बड़े क्षेत्र में बिखरे तथा एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न जातियों पर गहरा प्रभाव छोडऩे के लिए ही विधाता ने बनाया था।’’ इसी प्रसंग में डा. आर.सी. मजूमदार अपनी पुस्तक ‘एंशियंट इंडिया’ में जो कुछ लिखते हैं वह भी उल्लेखनीय है- ‘प्राचीन भारतीय अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार धन-संचय तथा व्यापार, उद्योग तथा वाणिज्य के विकास के प्रति अत्यंत सजग थे। इन विभिन्न मार्गों से प्राप्त भौतिक समृद्घि समाज के वैशिष्टय प्रदत्त ऐश्वर्य तथा सौम्यता से परिलक्षित होती थी। पुरातात्विक प्रमाणों से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी में एक ओर भारत तथा दूसरी ओर मैसोपोटामिया, अरब, फीनिका तथा मिस्र के बीच थल तथा जल मार्ग से निरंतर व्यापारिक संबंध थे। चीनी साहित्य ग्रंथों में भारत तथा चीन के मध्य ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी में समुद्री तथा व्यापारिक गतिविधियों का उल्लेख है। हाल ही की खुदाईयों से फिलीपीन्स मलयद्वीप तथा इंडोनेशिया के साथ पुराने व्यापारिक संबंध सुनिश्चित होते हैं, जो ऐतिहासिक काल तक चलते रहे। यह सामुद्रिक वैशिष्टय ही था-जिसके कारण से भारत व चीन के मध्य जल तथा थल मार्ग से यातायात विकसित होने के कुछ ही समय के पश्चात भारतीय अपने भारतीय द्वीप समूहों में बस्तियां बसा सके।
भारत यूनानी संसार के भी घनिष्ट संपर्क में आया। प्राचीन अधिकृत सूत्रों से यह भी ज्ञात होता है कि टोले भी फिलैडेलफस (ईसा पूर्व 285-246) के प्रदर्शनों में भारतीय महिलाएं, भारतीय शिकारी कुत्ते, भारतीय गायें और भारतीय मसालों से लदे ऊंट दिखाई पड़ते थे और यह भी कि मिश्र के शासकों की आनंद विहार नौकाओं के स्वागत कक्ष भारतीय हीरे पन्नों से जड़े होते थे। इन सबसे यह पता चलता है कि भारत तथा पश्चिमी देशों के सुदूर अफ्रीकी तटों तक घना समुद्री व्यापार होता था, सामान को तटों से थलमार्ग से नील नदी तक ले जाया जाता था, और वहां से नदी मार्ग द्वारा उस समय के विशाल वाणिज्य केन्द्र अलेग्जेण्ड्रिया तक। ईसा की प्रथम शताब्दी में अफ्रीकी तट से परे एक वाणिज्यिक बस्ती थी। भारतीयों के साहसिक कार्य उन्हें सुदूर उत्तरी सागर तक ले गये, जबकि उनके कारवां एशिया के एक छोर से दूसरे छोर तक फेेल गये।’ उस पुनरूज्जीवी पराक्रम को प्रणाम
कोई भी जाति जब तक अपने जातीय गौरव, जातीय पराक्रम और जातीय स्वाभिमान से भरी रहती है तब तक उसे मिटाया नही जा सकता। हिंदू के पुनरूज्जीवी पराक्रम के पीछे उसकी एक गौरवपूर्ण इतिहास परंपरा खड़ी थी, जो उसके पताका प्रहरियों को जातीय पराक्रम और जातीय स्वाभिमान के श्लाघनीय गुणों से भरते थे। जब व्यक्ति निर्माण और सृजन के कीर्तिमान स्थपित करता है, तो उसे आत्मबल मिलता है, जिससे वह लंबी दूरी की यात्रा बिना थकान अनुभव किये कर सकता है, और यदि उस यात्रा में कहीं कोई व्यवधान आता है तो उसे बड़े धैर्य और संतोष भाव से दूर भी कर सकता है। जैसा कि भारत इस काल में कर रहा था।क्रूरता शत्रु उत्पन्न करती है इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति विध्वंस और विनाश के कीर्तिमान स्थापित करता है तो उस विध्वंस और विनाश के पापकृत्यों का भार उसके आत्मबल को धिक्कारता है, और व्यक्ति भीतर से दुर्बल हो जाता है। मुस्लिम आक्रांताओं के साथ यही हो रहा था। क्रूरता उसकी स्वत: सिद्घ दुर्बलता थी, जिसे इतिहास ने उसकी वीरता सिद्घ किया है। क्योंकि वीरता शत्रु उत्पन्न नही करती है, अपितु शत्रु को शांत करती है और क्रूरता सदा शत्रु उत्पन्न करती रहती है। भारत की सात्विक वीरता से शत्रु को मित्र बनाया और इस्लाम की तामसिक क्रूरता ने मित्र को शत्रु बनाया। जिसमें वह स्वयं ही उलझकर रह गया अपने भ्रातृत्व और सहचर्य के विस्तार के लिए तथा इस्लामिक कलह, कटुता और क्लेश के वातावरण का प्रतिरोध करने के लिए यदि राजा हरिसिंह तत्कालीन सुल्तानों को बारम्बार दुखी कर रहे थे तो इस राष्ट्रभक्ति में दोष क्या था?
रोहिल्ला राव खड्ग सिंह
रोहिल्ला राव हरि सिंह
रोहिल्ला राव नर सिंह
रोहिल्ला राव जगत सिंह
सभी उसी महान विरासत के महान स्तम्भ है जो महाराजा रणवीर सिंह रोहिल्ला जी ने हमें दी है
जय महाराजा रणवीर सिंह रोहिल्ला जी

3 comments:

Ishman said...

कैलास के संस्थापक: परमशिव, और उनका 1008 वां अवतार; हिंदू धर्म के सर्वोच्च पुजारी, जगतगुरु महासन्निधानम, परम पावन भगवान नित्यानंद परमशिवम
कैलाश-प्रबुद्ध सभ्यता, सबसे महान हिंदू राष्ट्र का पुनरुत्थानकर्ता है।
SPH is an avatar - Skanda / Kartikeya - brother of Lord Ganesh !
His picture was on ancient coins of U.P.

> www.youtube.com/watch?v=0agcmW9JXV0

-- Kindly do not publish this comment . It is just info. Dhanyawaad -
Apko naman pranaam!

Ishman said...

कैलास के संस्थापक: परमशिव, और उनका 1008 वां अवतार; हिंदू धर्म के सर्वोच्च पुजारी, जगतगुरु महासन्निधानम, परम पावन भगवान नित्यानंद परमशिवम
कैलाश-प्रबुद्ध सभ्यता, सबसे महान हिंदू राष्ट्र का पुनरुत्थानकर्ता है।
SPH is an avatar - Skanda / Kartikeya - brother of Lord Ganesh !
His picture was on ancient coins of U.P.

> www.youtube.com/watch?v=0agcmW9JXV0

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Ishman said...

The Supreme Pontiff (SPH), Jagatguru Mahasannidhanam (JGM), His Divine Holiness (HDH) Bhagavan Nithyananda Paramashivam -

- kailasapedia.org/wiki/Main_Page

Pls see - kailasapedia.org/wiki/July_23_2012