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Monday, December 25, 2017

कटेहर नरेश हरिसिंह

कटेहर नरेश हरिसिंह ने दी चुनौती कटेहर rohillkhand को ही कहते हैं जाने कितने वंश गुलाम वंश सय्यद वंश मुगल वंश के सुल्तान सेनापति आदि ख़तम हो गए हम को झुकाने में लेकिन रोहिल्ला न झुका था न झुका है और न झुके गाहम रोहिल्ला है इन वीरों के वंशज हैं हम ‘कटेहर’ अपनी स्वतंत्रता प्रेमी भावना के लिए पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों के काल में भी विख्यात रहा था। अब भी उसने अपने इस परंपरागत गुण को यथावत बनाये रखा। वहां के राजा हरिसिंह ने नये मुस्लिम सुल्तान के सिंहासनारूढ़ होने से पूर्व सल्तनत में सिंहासन के लिए मचे घमासान के वर्षों में ही अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। इसलिए इस हिंदू स्वतंत्र शासक का दमन करना मुस्लिम सुल्तान खिज्र खां के लिए अवश्यक हो गया था। फलस्वरूप खिज्र खां ने हरिसिंह को अपने आधीन करने का निर्णय लिया। खिज्र खां ने अपने विश्वससीन ताजुल मुल्क को 1414-15ई में कटेहर पर आक्रमण करने के लिए बड़ी सेना देकर भेजा। राजा हरिसिंह ने विशाल सेना का सामना न करके पीछे हटकर घाटियों मे ंजाना उचित समझा। ताजुल मुल्क ने कटेहर निवासियों को जितना लूट सकता था, या मार सकता था, उतना लूटा भी और मारा भी। तत्पश्चात उसने नदी पार कर खुद कम्पिला, सकिया और बाथम को लूटा। ‘तारीखे मुबारक शाही’ के अनुसार मुस्लिम सेना ने राजा का घाटियों में भी प्रतिरोध किया तो उसने कर देना स्वीकार कर लिया।
हारकर भी राजा ने हार नही मानी इसके पश्चात शाही कि सेना जैसे ही पीछे हटी और राजधानी दिल्ली पहुंचीे तो राजा हरिसिंह ने अपनी स्वतंत्रता की पुन: घोषणा कर दी। अगले वर्ष 1416-17 ई. में ताजुल्मुल्क को राजा हरिसिंह के शौर्य के दमन के लिए पुन: सेना सहित कटेहर की ओर प्रस्थान करना पड़ा। इस बार भी उसने राजा को ‘कर तथा उपहार’ देने के लिए पुन: बाध्य कर किया। राजा ने स्वतंत्र रहने की सौगंध उठा ली थी
राजा ने कर तथा उपहार देकर शत्रु को दिल्ली भेज दिया, पर उसके दिल्ली पहुंचते ही पुन: कटेहर की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। मानो राजा ने स्वतंत्र रहने की सौगंध खा ली थी और उसे सुल्तानों की अधीनता किसी भी सीमा तक स्वीकार्य नही थी। ऐसी परिस्थितियों में पुन: अगले ही वर्ष (1418-1419ई में) कटेहर के हिंदू राजा का मस्तक झुकाने के लिए ताजुल मुल्क पुन: वहां भेजा गया। ताजुल मुल्क अपनी विशाल सेना के साथ दिल्ली से चलकर कटेहर आ धमका। राजा हरिसिंह ने शत्रु के आ धमकने की सूचना पाकर अपने राज्य के खेत खलियानों को स्वयं ही अपनी प्रजा से विनष्ट कराना आरंभ कर दिया। जिससे कि शत्रु को किसी भी प्रकार से अन्नादि उपलब्ध न होने पाये। राजा पुन: आंवला की घाटी में प्रविष्ट हो गया। शाही सेना ने राजा का घाटी तक पीछा किया। फलस्वरूव राजा और शाही सेना के मध्य प्रबल संघर्ष इस घाटी में हुआ। ‘तारीखे मुबारकशाही’ के अनुसार राजा पराजित हुआ और कुमायूं के पर्वत की ओर चला गया। शाही सेना के 20 हजार घुड़सवारों ने उसका पीछा किया, परंतु राजा को पकडऩे में शाही सेेना पुन: असफल रही। राजा से असफल होकर पांच दिन के असफल संग्राम के पश्चात शाही सेना दिल्ली लौट आयी। ध्यान देने योग्य तथ्य ध्यान देने की बात ये है कि दिल्ली लौटी सेना या उसके सेनापति राजा हरिसिंह को परास्त करके उसे बंदी बनाने में हर बार असफल होते रहे और राजा के भय के कारण कभी भी उसके राज्य पर अपना राज्यपाल नियुक्त करने या उसे सीधे अपने साम्राज्य के आधीन लाने का साहस नही दिखाया। फलस्वरूप इस बार भी राजा ने अपने राज्य पर पुन: अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। तब सुल्तान स्वयं कटेहर की ओर सेना लेकर बढ़ा। फरिश्ता का कहना है कि सुल्तान ने कटेहर को नष्ट किया और पुन: दिल्ली लौट आया। परंतु हरिसिंह इसके उपरांत भी स्वतंत्र रूप से शासन करता रहा। इतिहास को ऐसे भी पढ़ा जा सकता है पांच सैनिक अभियानों के लिए एक छोटे से हिंदू राजा ने मुस्लिम सल्तनत को विवश किया, पर्याप्त विनाश झेला और इसके उपरांत भी अपनी स्वतंत्रता को खोया नही यह इतिहास है। इन सैनिक अभियानों से मुस्लिम सल्तनत दुर्बल हुई। क्योंकि हर वर्ष एक बड़ी सेना को सैनिक अभियान के लिए भेजना और कोई विशेष उपलब्धि के बिना ही सेना का यूं ही लौट आना उस युग में बड़ा भारी पड़ता था। राजा ने निश्चित रूप से वीरता पूर्वक मुस्लिम सेना से संघर्ष नही किया, यह हम मानते हैं।परंतु उसके साहस की भी उपेक्षा नही की जा सकती कि शाही सेना के पीठ फेरते ही वह अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर देता था। इस कार्य में कटेहर की धर्मभक्त और स्वतंत्रता प्रेमी हिंदू जनता भी साधुवाद की पात्र थी, क्योंकि उसने भी अपने शासक के विरूद्घ कभी न तो विद्रोह किया और ना ही शाही सेना के सामने समर्पण कर इस्लाम स्वीकार किया। उसने हर बार अपने शासक के निर्णय को उचित माना और उसके निर्णय के साथ अपनी सहमति व्यक्त की। इतिहास को इस दृष्टिकोण से भी पढ़ा जाना अपेक्षित है। सुल्तान को स्वयं चलाना पड़ा सैनिक अभियान यहिया और निजीमुद्दीन अहमद के वर्णनों से स्पष्ट होता है कि सुल्तान मुबारक शाह को 1422-23 ई और 1424 ई में भी कटेहर के लिए सैन्य अभियान चलाना पड़ा था। इन अभियानों का नेतृत्व भी सुल्तान मुबारकशाह ने ही किया था। इस प्रकार मुबारकशाह को हरिसिंह ने कभी भी सुखपूर्वक शासन नही करने दिया। उसे जितना दुखी किया जा सकता था, उतना किया। 1422-23 ई. में तो मुबारकशाह हरिसिंह से कोई कर भी प्राप्त नही कर सकता था। याहिया खां और निजामुद्दीन हमें बताते हैं कि इसके उपरांत सुल्तान गंगा नदी पार कर दोआब क्षेत्र की ओर निकल गया था। कटेहर की ओर फिर कोई नही आया सैय्यद शासक
यह एक तथ्य है कि मुबारकशाह के पश्चात कटेहर की ओर अन्य किसी सैय्यद वंशीय सुल्तान ने पुन: कोई सैन्य अभियान नही चलाया। फलस्वरूप राजा हरिसिंह का साहस कटेहर के लिए वरदान सिद्घ हुआ और यह राज्य अपनी स्वतंत्रता स्थापित किये रखने में सफल रहा। भारत की अद्भुत परंपरा पराजय में भी आत्मनिष्ठ, स्वतंत्रतानिष्ठ, धर्मनिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ और स्वसंस्कृतिनिष्ठ बने रहने की भारत और भारत के लोगों की विश्व में अदभुत परंपरा है। अपने इसी अदभुत गुण के कारण कितने ही आघातों-प्रत्याघातों को सहन करके भी भारत वैसे ही पुनर्जीवित होता रहा, जैसे एक फीनिक्स नाम का पक्षी अपनी राख में से पुनर्जीवित हो उठता है। अलाउद्दीन के काल तक जितने परिश्रम से यहां मुस्लिम साम्राज्य खड़ा किया जा रहा था, उतने पुनरूज्जीवी पराक्रम के प्रत्याघात से हिंदू शक्ति उसे भूमिसात करने का अतुलनीय प्रयास कर रही थी। उसी पुनरूज्जीवी पराक्रम के प्रत्याघात की पताका का प्रतीक राजा हरिसिंह कटेहर में बन गया था। जिस शक्ति का प्रयोग मुस्लिम सुल्तान देश के अन्य भागों में हिंदू पराक्रम को पराजित करने के लिए कर सकते थे, उसे बार-बार हरिसिंह कटेहर में व्यर्थ में ही व्यय करा डालता था। शत्रु पराभव की ओर चल दिया यह ऐसा काल था जिसमें भारत की हिंदू शक्ति ने अपने पराक्रम से शत्रु के विजय अभियानों पर तो पूर्ण विराम लगा ही दिया था, साथ ही शत्रु को पराभव की ओर निर्णायक रूप से धकेलने का भी कार्य किया। क्योंकि इसके पश्चात पूरे देश में दिल्ली की सल्तनत पुन: उस ऊंचाई तक नही पहुंच पायी जिस ऊंचाई तक उसने अलाउद्दीन के काल में अपना विस्तार कर लिया था।
यह प्राचीन पराक्रम की प्रतिच्छाया थी सर ऑरेल स्टीन (1862-1943ई.) हंगरी निवासी थे। जिन्होंने भारत के पराक्रमी और वैभव संपन्न अतीत पर व्यापक अनुसंधान किया था। उनके अनुसंधानात्मक कार्यों से भारत के विषय में लोगों के ज्ञान में पर्याप्त वृद्घि भी हुई। वह लिखते हैं :-‘‘भारतीय सांस्कृतिक प्रभाव के उत्तर दिशा में मध्य एशिया से लेकर दक्षिण में इण्डोनेशिया तक और पर्शिया की सीमा से लेकर चीन तथा जापान तक विशाल विस्तार ने यह सिद्घ कर दिया है कि प्राचीन भारत सभ्यता का एक दीप्तिमान केन्द्र था जिसे अपने धार्मिक विचार तथा कला साहित्य द्वारा उन वृहत्तर एशिया के एक बड़े क्षेत्र में बिखरे तथा एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न जातियों पर गहरा प्रभाव छोडऩे के लिए ही विधाता ने बनाया था।’’ इसी प्रसंग में डा. आर.सी. मजूमदार अपनी पुस्तक ‘एंशियंट इंडिया’ में जो कुछ लिखते हैं वह भी उल्लेखनीय है- ‘प्राचीन भारतीय अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार धन-संचय तथा व्यापार, उद्योग तथा वाणिज्य के विकास के प्रति अत्यंत सजग थे। इन विभिन्न मार्गों से प्राप्त भौतिक समृद्घि समाज के वैशिष्टय प्रदत्त ऐश्वर्य तथा सौम्यता से परिलक्षित होती थी। पुरातात्विक प्रमाणों से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी में एक ओर भारत तथा दूसरी ओर मैसोपोटामिया, अरब, फीनिका तथा मिस्र के बीच थल तथा जल मार्ग से निरंतर व्यापारिक संबंध थे। चीनी साहित्य ग्रंथों में भारत तथा चीन के मध्य ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी में समुद्री तथा व्यापारिक गतिविधियों का उल्लेख है। हाल ही की खुदाईयों से फिलीपीन्स मलयद्वीप तथा इंडोनेशिया के साथ पुराने व्यापारिक संबंध सुनिश्चित होते हैं, जो ऐतिहासिक काल तक चलते रहे। यह सामुद्रिक वैशिष्टय ही था-जिसके कारण से भारत व चीन के मध्य जल तथा थल मार्ग से यातायात विकसित होने के कुछ ही समय के पश्चात भारतीय अपने भारतीय द्वीप समूहों में बस्तियां बसा सके।
भारत यूनानी संसार के भी घनिष्ट संपर्क में आया। प्राचीन अधिकृत सूत्रों से यह भी ज्ञात होता है कि टोले भी फिलैडेलफस (ईसा पूर्व 285-246) के प्रदर्शनों में भारतीय महिलाएं, भारतीय शिकारी कुत्ते, भारतीय गायें और भारतीय मसालों से लदे ऊंट दिखाई पड़ते थे और यह भी कि मिश्र के शासकों की आनंद विहार नौकाओं के स्वागत कक्ष भारतीय हीरे पन्नों से जड़े होते थे। इन सबसे यह पता चलता है कि भारत तथा पश्चिमी देशों के सुदूर अफ्रीकी तटों तक घना समुद्री व्यापार होता था, सामान को तटों से थलमार्ग से नील नदी तक ले जाया जाता था, और वहां से नदी मार्ग द्वारा उस समय के विशाल वाणिज्य केन्द्र अलेग्जेण्ड्रिया तक। ईसा की प्रथम शताब्दी में अफ्रीकी तट से परे एक वाणिज्यिक बस्ती थी। भारतीयों के साहसिक कार्य उन्हें सुदूर उत्तरी सागर तक ले गये, जबकि उनके कारवां एशिया के एक छोर से दूसरे छोर तक फेेल गये।’ उस पुनरूज्जीवी पराक्रम को प्रणाम
कोई भी जाति जब तक अपने जातीय गौरव, जातीय पराक्रम और जातीय स्वाभिमान से भरी रहती है तब तक उसे मिटाया नही जा सकता। हिंदू के पुनरूज्जीवी पराक्रम के पीछे उसकी एक गौरवपूर्ण इतिहास परंपरा खड़ी थी, जो उसके पताका प्रहरियों को जातीय पराक्रम और जातीय स्वाभिमान के श्लाघनीय गुणों से भरते थे। जब व्यक्ति निर्माण और सृजन के कीर्तिमान स्थपित करता है, तो उसे आत्मबल मिलता है, जिससे वह लंबी दूरी की यात्रा बिना थकान अनुभव किये कर सकता है, और यदि उस यात्रा में कहीं कोई व्यवधान आता है तो उसे बड़े धैर्य और संतोष भाव से दूर भी कर सकता है। जैसा कि भारत इस काल में कर रहा था।क्रूरता शत्रु उत्पन्न करती है इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति विध्वंस और विनाश के कीर्तिमान स्थापित करता है तो उस विध्वंस और विनाश के पापकृत्यों का भार उसके आत्मबल को धिक्कारता है, और व्यक्ति भीतर से दुर्बल हो जाता है। मुस्लिम आक्रांताओं के साथ यही हो रहा था। क्रूरता उसकी स्वत: सिद्घ दुर्बलता थी, जिसे इतिहास ने उसकी वीरता सिद्घ किया है। क्योंकि वीरता शत्रु उत्पन्न नही करती है, अपितु शत्रु को शांत करती है और क्रूरता सदा शत्रु उत्पन्न करती रहती है। भारत की सात्विक वीरता से शत्रु को मित्र बनाया और इस्लाम की तामसिक क्रूरता ने मित्र को शत्रु बनाया। जिसमें वह स्वयं ही उलझकर रह गया अपने भ्रातृत्व और सहचर्य के विस्तार के लिए तथा इस्लामिक कलह, कटुता और क्लेश के वातावरण का प्रतिरोध करने के लिए यदि राजा हरिसिंह तत्कालीन सुल्तानों को बारम्बार दुखी कर रहे थे तो इस राष्ट्रभक्ति में दोष क्या था?
रोहिल्ला राव खड्ग सिंह
रोहिल्ला राव हरि सिंह
रोहिल्ला राव नर सिंह
रोहिल्ला राव जगत सिंह
सभी उसी महान विरासत के महान स्तम्भ है जो महाराजा रणवीर सिंह रोहिल्ला जी ने हमें दी है
जय महाराजा रणवीर सिंह रोहिल्ला जी

Monday, December 11, 2017

रामपुर रोहिलखण्ड

रामपुर रोहिलखण्ड के राजकुमार थे रणवीर सिंह इनका जन्म रामपुर के किले में ही हुआ था इनके पिता विधर्मी संघरक राजा त्रिलोक सिंह थे इनकी पत्नी का नाम तारा देवी था जो सीकरी के राजा की पुत्री थी इनका एक छोटा भाई भी था सुजान सिंह उर्फ सूरत सिंह जो 1273 विक्रमी में अपने 368 साथियों सहित चरखी दादरी हरियाणा में आ गया था
Ranveer Singh was the prince of rampur, he was born in the fort of rampur. His Father was the name of his wife, who was the daughter of his wife who was a daughter of the king of sikri, he was a younger brother, who In 1273, with his 368 colleagues, charkhi dadri came in Haryana.

Sunday, September 3, 2017

Kaṭēhara Rōhila - Sammy Singh Pundir

आदरणीय महेश सिंह कठायत जी अपने कटेहर रोहिल खंड से विस्थापित राजपूतो के निरंतर 400 वर्ष के संघर्ष का जो मार्मिक वर्णन किया है उसके लिए क्षत्रिय समाज आपका ऋणी है नेपाल में निवास के बाद भी आप अपनी जन्म भूमि कर्म भूमि कुमायूं ओर कटेहर को नही भूले आप धन्य है आपने 180 वर्ष पुराना दस्तावेज मूल प्रति प्रस्तुत कर क्षत्रियो को गौरवान्वित किया है आपने कटेहर के रोहिला राजपूतो का क्रमबद्ध इतिहास खोज कर एक अति उत्तम कार्य किया है राजा रणवीर सिंह कटेहर या रोहिला ने सल्तनत को घुटने टेकने पर मजबूर किया और नसीरुद्दीन महमूद बहराम उर्फ चंगेज को हराने का वर्णन कर इतिहास के पन्ने खोल दिये है
भारत का क्षत्रिय समाज आपका स्वागत व धन्यवाद करता है कटेहर के कठायत राजपूत वही हैजिन्होंने काठ गढ़ में सिकंदर को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था सूर्य वन्स की निकुम्भ शाखा के ये सूर्य वंसी राजपूत रावी व व्यास नदी के का ठ में काठ गणराज्य के संस्थापक थे

Respected Mahesh Singh kaṭhāyata ji is a constant of the 400 years of the struggle of displaced rajputs with its kaṭēhara rōhila, the kshatriya society is your debtor in Nepal, even after dwelling in Nepal, you do not have your birth land. You are blessed, you have made a 180-Year-old document to the original per. You have proud rajput. The sort of rajputs is a great job. King Ranveer Singh Kaṭēhara or rohila has forced the empire to kneel. The more naseeruddin mahmood baharāma aka and ghenghis the page of history and open
The Kshatriya Society of India is welcome and thanks to the kaṭēhara rajput in the kaṭēhara, he was forced to kneel down in the he, the sun and the founder of the Kath Rajput, the sun and the diameter.

Wednesday, August 30, 2017

Gaura Festival of far western region of Nepal "गौरा पर्व"

गौरा पर्व
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पार्वतीले कठोर तपस्याद्वारा शिवलाई पतिका रुपमा प्राप्त गरेका यस पर्वमा गौरी अर्थात पार्वतीको पुजाअर्जना गरिन्छ ।
यो पर्व भाद्र महिनामा नेपालको
. सुदूरपश्चिम तथा मध्यपशचिमाञ्चलमा मनाइन्छ ।सु प मा महत्वपुर्ण पर्वको रुपमा गौरापर्वलाई लिइन्छ ।परापूर्वकाल देखि डोटी र कुमाउँमा भाद्र शुक्ल षञ्चमी देखि अष्टमी सम्म विभिन्न कार्यक्रम गरी मनाईन्छ ।भाद्र महिनाभरी पनि यो पर्व मनाइन्छ ।यसलाई मनाउने चलन फरक फरक भएता पनि निम्न विधिबाट यो पर्व मनाइन्छ ।
1 पहिलो दिन बिरुडा पञ्चमी
गैरापर्वमा महिलाहरु निराहार बसी आ आफ्नो घरमा तामा वा पित्तलको भाँडोमा विरुडा अर्थात गहुँ ,केराउ ,गहत , मास र गुरुँस गरी पञ्च अन्न दीप बालेर पुजा गरेर भिजाउँछन ।
2 दोश्रो दिन
भिजाएको बिरुडा लिएर सबै महिला नजिकको पानीको मुहान भएको ठाउँमा गइ धुने गर्दछन ।
3 तेस्रो दिन
.धोएको विरुडा ,धान ,साउँ ,गुभो ,अपामार्ग फूल लगायका बिरुवाबाट गौराको मूर्ति बनाइनछ । यो कार्य चेलिबेटीहरु गर्दछन । निङगलो वा बाँसको चोयाबाट निर्मित टोकरीमा गौरादेवीको प्रतिमा बनाईन्छ ।
बाजा गाजाका साथ बेलुकिपख
गीत गाएर गौरा घरमा ल्याइन्छ ।
#बारै बार आसेइ लोली मइ माईत बोलाएइ .......
मन्दिरमा गौरा भित्र्याइन्छ ।
निराहार महिला .अरु भक्तजन पनि आउने गर्दछन ।
महिलाहरु दुधागो र सप्तमी ,पुजा सामाग्री साथ पुजागरी देउडा खेल्दछन ।
सप्तमी भन्नाले एउटा डोरीमा सातवटा गाँठा पारिन्छ त्यसैलाई अबसेक गरी घाँटीमा लगाएर खाना खाइन्छ ।
4.अषठमी या अठेवाली
बाजागाजाका साथ लोली गमरा देवीलाई चेली बेटीहरु गौरा खलोमा पुरयाउँछन ।
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महिलाहरु अठेबाली भन्दछन र अरु ठाडो खेल ,धुमारी लोक देउडा खेल्ने गर्दछन ।
पछि बिरीडा फलफुलहरुलाई चारै दिशा पर्ने गरी चाधरले जोडले आकाश तिर फाल्ने गर्दछन ।
त्यो बिरुडा सबैले मान्य ज्यूबाट लगाइन्छ ।
त्यस चलन अनुसार सेलाउने वा आर्को बिसेस दिन राख्ने निर्णय हुन्छ ।
दिनभरी सबाल जबाफ ,ठाडो खेल ,लोकदेउडा खेल्ने गरिन्छ ।
गौरागीत
हल्लोरी वाला कल्लोरी ........2
यो मेरो वाला लीसनी लोटयो
लीसनी लोटयो जिऊँ हो लिसनी लोटयो ।
सासु वरालीले हेरी दिथ्यो वालो हेरी दिन्थ्यो ।
हल्लोरी वाला हल्लोरी ........2
गौराबिशेष
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ढुस्को
हाई
को लोग छन गोकुल पुरी
बिडी महादेव गोकुल पुरी
नन्द यसोदा गोकुल पुरी
केउ काज छन गोकुलपुरी
किसनका छटी गोकुल पुरी

Monday, April 3, 2017

Ruhela pathan and Rohilla Chhaetriya relations


इतिहाँस मकवानपुर जिल्लाका कठायतहरुको : शैलेन्द्र सिंह कठायत



मकवानपुर जिल्लाको इपा पञ्चकन्या गा बि जहाँ कठायतहरुको बाहुल्यताछ वडानम्बर ' सात ' जहाँ धुरिको हिसाबले ९९ % कठायतहरु बस्दछन त्यस लगायत बाँकी सबै वडा हरुमापनी कठायत हरुको बहुल्यता रहेकोछ
इतिहाँस मकवानपुर जिल्लाका कठायतहरुको : शैलेन्द्र सिंह कठायत
डोटीका भागीरथ कठायत अन्तार्जातिय विवाह ( नेवार जातकी एक युबतीसँग विवाहगरी ) गरी हाल मकवानपुर जिल्लाको इपा पञ्चकन्या भनेर चिनिने ठाउँमा गएर बस्नुभएको थियो त्यतिबेला हाम्रा कठायतहरु डोटीराज्यमा राजगरेर बस्दथे आफ्ना छोरा नाती, दाजुभाइहरु कसैलेपनि नराम्रोकाम या कुनैपरम्परामा, खान्दानमा धक्कालाग्नेकाम गर्नासाथ उनिहरुलाई तुरुन्तै राज्यनिकला गरिन्थ्यो त्यस्तै भागीरथ कठायतले पनि अन्तर्जातिय विवाह गरेर राज्य निकाला हुनुपर्यो हाम्रो कठायतहरुको ईतिहासमा यस्ता थुप्रै भागीरथहरु थिए जो राज्यनिकाला भएर कोही खोटाङ कोही काठमाडौं, कोही पूर्व कोही पश्चिमगरी देशका अन्यन्त्र भागमा छरिएर बस्न पुगेका थिए
भागीरथ जब काठमन्डौछिरे त्यतिबेला उनिसँग उनका दुईभाई सहित आएका थिए तर बिचमा ति दुईभाई कतागए के गरे भन्नेबारेमा ईतिहास केलाउननै बाँकीछ तर सुरुमा दाजुभाइ साथमा बसे काठमान्डौको दक्षिण तर्फ रहेका दक्षिणकाली माइको मन्दिर देखी केही घण्टा पैदाल जानुपर्ने ठाउँ इपा पञ्चकन्या पनि पहिले काठमन्डौ जिल्ला नै पर्दथियो
जग्गा जमिन प्रसस्त भएका काजी, मुखिया खान्दान कठायत बिहान उठेर गाइको दुध चाढाउन दक्षिणकाली पुग्दथे अहिले पनि इपामा कठायतहरुले दक्षिणकालीलाई आफ्नो कुलदेबतामानि प्रत्यक बर्ष मङ्शिर पुर्णिमाकोदिनमा देवाली गर्ने चलनछ उतिसमयमा दक्षिणकालीमा दुध चढाएर घरफर्की खनाखाएर आफ्नो दैनिककाममा लाग्दथे सो गाउँ उनिहरुकोलागि अत्यन्तै स्वर्गसमान थियो किनकी बजारबाट टाढा बिहान दुधचढाएर समान किन्मेल गरेर घरअफर्की खाना खानकोलागि उनिहरुलाई कुनै समस्या पर्दैनथियो
बिस्तारै बिस्तारै त्यस ठाउँमा कठायत हरुको जनसंख्या बढ्दै गयो कोही राजनीति गर्नतर्फ लगे कोही बसाइसरेर अझ सुगम ठाउँतर्फ जानेक्रम जारी रह्यो बिस्तारै जनसंख्या बढ्दैगयो, कोही पल्टनमा जागिरखान लागे कोही भारततिर कमाउन लागे पहिले श्रीनाथको पल्टन जो नेपालको सबैभन्दा ठुलोगण राजाधानी काठमान्डौमाथियो मेरो आफ्नै बाजे पनि त्योपल्टनमा जागिरए हुनुहुन्थ्यो रे ! मैले थाहापाउदासम्म हर्कबहादुर कठायत गाउको मुखिया हुनुहुन्थ्यो, उहाका सम्पूर्ण परिवार राजनीतिमा लाग्नुभएको थियो पञ्चायत कालका राजनीतिग्य हाम्रो तिर कठायत बहेकअरु कोहिपनी थिएनन गोरख बहादुर कठायत उतिबेला काठमाडौं जिल्लाका सभापती हुनुहुन्थ्यो रे इपामा कठायतहरु मैले थाहा पाउदा सम्म राजगरेरै बस्नुभएको थियो भागीरथ देखी अहिले हामी १३ अौं पुस्तामा छौ यि सम्पूर्ण कुराहरु मैलेपनि हाम्रा पुर्खा देखीलेख्दै राख्नुभएका दस्ताबेज मार्फत सङ्कलन गरेको हुँ एक दिन काठमाडौं जाना लाग्द स्व बलराम कठायतले मलाई उहाको घरमा बोलाएर '' हेर नाती यो बङ्शावली हो हाम्रो हामीलाई एस्को ठुलो महत्तो त्यसकारण तैलेएसलाई छपएर लेरअाइजो भनेर एउटा पुरानो नेपाली कागज जस्मा सम्पूर्णकुराहरु लेखिएको रहेछ त्यो कागज नै नहरा है '' भनेर दिनुभएको थियो त्यसै कागजलाई आधार बनाएर मैले पनि एत्ती सम्म लेख्ने कोशीस गरे खास मा हाम्रो कठायत हरुको सम्पूर्ण विवरण भएको बंसावली महेश सिंह कठायत ले तयार पार्नुभएको जस्मा नेपाल अधिराज्यमात्रै हैन भारतदेखीकै हाम्रा पुस्ताहरुको विवरण छन
यो पढेर तपाईंहरुलाई पनि इपाको कठायत हरुको बारेमा जानकारी भयो भन्नेमा विश्वस्थछु तपाईंहरुपनी इपा गएर उहाहरुसँग भेट्नुस् आफ्नो बन्धु भनेपछी उहाहरु धेरैखुशी हुनुहुन्छ देवाली मापनि सामेल हुनुस् काठमाडौं देखी धेरै टाढा को दुरिपनीछैन कुनैपनी चार्ड बार्डमा तपाईंहरु सजिलै जान सक्नुहुनेछ गएर आफ्नो परिवार सँग एक्दमै खुशीका साथ मनाउन सक्नुहुनेछ हामी कठायतहरु एक हौ