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Sunday, December 9, 2018
Wednesday, December 5, 2018
Roh (Medieval Afghanistan)
'Roh' is the medieval name of Afghanistan. Etymologically the word Roh is derived from the Sanskrit "Rohitagiri"m (Red hill). Panini of 4th century B.C, Sanskrit grammarian from modern-day Charsadda, informs that highlanders dwelt on the Rohitagiri.
Yousafzai
Pukhtuns who left their country and settled in foothills of Himalayas
(modern U P in India ) were called Rohillas i.e people from Roh.
Thursday, September 6, 2018
राज्य-पांचाल, मध्यदेष, कठेहर, (रोहिलखण्ड), राजधानी-रामपुर (निकट अहिक्षेत्र, रामनगर) (तेहरवीं षताब्दी का पूर्वार्द्ध)
महाराजा रणवीर सिहं रोहिला
राज्य-पांचाल, मध्यदेष, कठेहर, (रोहिलखण्ड), राजधानी-रामपुर (निकट अहिक्षेत्र, रामनगर)
(तेहरवीं षताब्दी का पूर्वार्द्ध)
वंष-वृक्ष
सूर्यवंष‘- महाराज भरत के वंषधर निकुम्भ ईसा पूर्व 326 वर्ष कठगण राज्य (रावी नदी के काठे में) सिकन्दर का आक्रमण काल-राजधानी सांकल दुर्ग (वर्तमान स्यालकोट) 53 वीं पी-सजय़ी राज्य अजयराव के वंषधर निकुम्भ वंषी राजस्थान अलवर, मंगलग-सजय़, जैसलमेर होते हुए गुजरात, सौराट्र गये, फिर पांचाल, मध्यदेश गये। अलवर में दुर्ग निकुम्भ वंशी (कठ क्षत्रिय रावी नदी के कोठ से (विस्थापित कठ-ंगण) क्षत्रियों ने बनवाया (राज्य मंगलग-सजय़), सौराष्ट्र में काठियावाड़ की स्थापना की । मध्यदेश के पांचाल में कठेहर राज्य की स्थापना सन् 648 से 720 ई. तक (कन्नौज के पतन के पश्चात्) की। यहां अहिक्षेत्र के पास रामनगर गांव मे ंराजधानी स्थापित की, ऊंचा गांव म-हजयगांवा को सैनिक छावनी बनाया। यहां पर शासक हंसदेव, रहे, इनके पुत्र हंसबेध राजा बने-ं816 ई. तक- इसी वंश में निकुम्भवंश कठेहरिया रामश्शाही (राम सिंह जी ) ने रामपुर गांव को एक नगर का रूप दिया और 909 ई में कठेहर- रोहिलखण्ड प्रान्त की राजधानी रामपुर में स्थापित की। यहां पर कठ क्षत्रियों ने 11 पी-सजय़ी शासन किया इसी वंश में महापराक्रमी, विधर्मी संहारक राजा रणवीर
सिंह रोहिला का जन्म हुआ।
वंश वृक्ष इस प्रकार पाया गया
रामपुर संस्थापक राजा राम सिंह उर्फ रामशाह 909 ई. में 966 विक्रमी , 3 पौत्र- बीजयराज 4. करणचन्द 5. विम्रहराज 6. सावन्त सिंह (रोहिलखण्ड का विस्तार गंगापार कर यमुना तक किया,) सिरसापाल के राज्य सरसावा में एक किले का निर्माण कराया। (दशवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध) नकुड रोड पर किले को आज यमुना द्वारा ध्वस्त एक टीले के रूप में देखा जा सकता है। 7. जगमाल 8. रणवीर सिंह 9. धिंगतराम 10 गोकुल सिंह 11 महासहाय 12. त्रिलोकचन्द 13. नौरंग देव (पिंगू को परास्त किया) (राजपूत गजट लाहौर 04.06.1940 द्वारा डा0
सन्त सिंह चैहान)
रामपुर का रोहिला किला, राजा रणवीर सिंह, दिल्ली में गुलामवंश का शासन
गुलाम सेनापति नासिरूद्दीन चंगेज उर्फ नासिरूद्दीन महमूद, सन् 1253 ई0, गुलाम वंश ने दोआब, कठेहर, शिवालिक पंजाब, बिजनौर आदि क्षेत्रों पर विजय पाने के लिए दमनकारी अभियान किया। इतने अत्याचार , मारकाट तबाही मचाई कि विदे्राह करने वाले स्थानीय शासक, बच्चे व स्त्रियंा भी सुरक्षित नहीं रही। ऐसी विषम परिस्थिति में रोहिल खण्ड के रोहिला शासकों ने दिल्ली सल्तनत के सूबेदार‘ ताजुल मुल्क इज्जूददीन डोमिशी‘ को मार डाला। दिल्ली सल्तनत के लिये यह घटना भीषण चुनौती सम-हजयी गई। इस समय रामपुर के राजा रणवीर सिंह थे । उन्होनंे दिल्ली सल्तनत के विरूद्ध अपनी क्रान्तिकारी प्रवृत्ति को सजीव बनाये रखा। नासिरूद्दीन महमूद (चंगेज) इस घटना से उद्वेलित हो उठा और सहारनपुर ‘ उशीनर प्रदेश‘ के मण्डावार व मायापुर से 1254 ई0 में गंगापार कर गया और विद्रोह को दबाता हुआ, रोहिलखण्ड को रौदता हुआ बदांयू पहुंचा। वहां उसे ज्ञात हुआ कि रामपुर में राजा रणवीर सिंह के साथ लोहे के कवचधारी 84 रोहिले है जिनसे विजय पाना टे-सजय़ी खीर है। इस समय दिल्ली की शासन व्यवस्था बलबन के हाथों में थी। सूचना दिल्ली भेजी गई। दिल्ली दरबार में सन्नाटा हो गया कि एक छोटे राज्य कठेहरखण्ड के रोहिलों से कैसे छीना जाए। नासिरूद्दीन चंगेज (महमूद) ने तलवार व बीड़ा उठाकर राजा रणवीर सिंह के साथ युद्ध करने की घोषणा की। रामपुर व पीलीभीत के बीच मैदान में पठानों व रोहिलों में विकट संघर्ष हुआ।
वशिष्ठ गोत्र के 84 लोहे के कवचधारी रन्धेलवंशी सेना नायकों की सेना के सामने नासिरूद्दीन की सेना के पैर उखड़ गये।
नासिरूद्दीन चंगेज को बन्दी बना लिया गया। बची हुई सेना के हाथी व घोडे तथा एक लाख रूपये महाराज रणवीर सिंह को देने की प्रार्थना पर आगे ऐसा अत्याचार न करने की शपथ लेकर नासिरूद्दीन महमूद ने प्राण दान मांग लिया। क्षात्र धर्म के अनुसार शरणागत को अभयदान देकर राजा रणवीर सिंह ने उसे छोड़ दिया। परन्तु धोखेबाज महमूद जो राजा रणवीर सिंह पर विजय पाने का बीड़ा उठाकर दिल्ली से आया था, षडयंत्रों में लग गया। राजा रणवीर सिंह का एक दरबारी पं. गोकुलराम पाण्डेय था। उसे रामपुर का राजा नियुक्त करने का लालच देकर महमूद ने विश्वास में ले लिया और रामपुर के किले का भेद लेता रहा। पं. गोकुल राम ने लालच के वशीभूत होकर विधर्मी को बता दिया कि रक्षांबधन के दिन सभी राजपूत निःशस्त्र होकर शिव मन्दिर मंे शस्त्र पूजा करेंगें। वशिष्ठ गोत्र के कठेहरिया राजपूतों मंे शिव उपासना कर शक्ति प्राप्त करने की भावना जीवित है।यह शिव मन्दिर किले के दक्षिण द्वार के समीप है। यह सुनकर महमूद का चेहरा खिल उठा और दिल्ली से भारी सेना को मंगाकर जमावड़ा प्रारम्भ कर दिया रक्षाबन्धन का दिन आ गया। सभी किले में उपस्थित सैनिक, सेनाायक अपने-ंअपने शस्त्रों को उतार कर पूजा स्थान पर शिव मन्दिर ले जा रहे थे। गोकुल राम पाण्डेय यह सब सूचना विधर्मी तक पहुचंता रहा। सामने श्वेत ध्वज रखकर दक्षिण द्वार पर पठानों की गुलामवंशी सेना एकत्र हो गयी। पूजा में तल्लीन राज पुत्रों को पाकर गोकुलराम पाण्डेय ने द्वार खोल दिया।
शिव उपासना में रत सभी उपस्थितों को घेरे में ले लिया गया। घमासान युद्ध छिड़ गया परन्तु ऐसी गद्दारी के कारण राजा रणवीर सिंह वीरगति को प्राप्त हुए। नासिरूद्दीन ने पं. गोकुल राम से कहा कि जिसका नमक खाया अब तुम उसी के नहीं हुए तो तुम्हारा भी संहार अनिवार्य है। नमक हरामी को जीने का हक नहीं है। गोकुल का धड़ भी सिर से अलग पड़ा था। सभी स्त्री बच्चों को लेकर रणवीर सिंह का भाई सूरत सिंह किले से पलायन कर चरखी दादरी में अज्ञातवास को चला गया। महारानी तारादेवी राजा रणवीर सिंह के साथ सती हो गई।
रामपुर में किले के खण्डरात, सती तारादेवी का मन्दिर तथा उनका राजमहल अभी तक मौजूद है, जो क्षात्र धर्म का परिचायक व रामपुर में रेहिले क्षत्रियों की कठ-शाखा के शासन काल की याद ताजा करता है जिन्होंने अपना सर्वस्व बलिदान कर क्षात्र धर्म की रक्षा की। गुलाम वंश, सल्तनत काल में विधर्मी की पराधीनता कभी स्वीकार नहीं की। अन्तिम सांस तक दिल्ली सल्तनत से युद्ध किया और रोहिलखण्ड को स्वतंत्र राज्य बनाये रखा। निरन्तर संघर्ष करते रहे राजा रणवीर सिंह का बलिदान व्यर्थ नहीं , सदैव तुगलक, मंगोल , मुगलों आदि से विद्रोह किया और स्वतंत्र रहने की भावना को सजीव रखा। राणा रणवीर सिंह के वंशधर आज भी रोहिला-ंक्षत्रियों में पाए जाते है।
राज्य-पांचाल, मध्यदेष, कठेहर, (रोहिलखण्ड), राजधानी-रामपुर (निकट अहिक्षेत्र, रामनगर)
(तेहरवीं षताब्दी का पूर्वार्द्ध)
वंष-वृक्ष
सूर्यवंष‘- महाराज भरत के वंषधर निकुम्भ ईसा पूर्व 326 वर्ष कठगण राज्य (रावी नदी के काठे में) सिकन्दर का आक्रमण काल-राजधानी सांकल दुर्ग (वर्तमान स्यालकोट) 53 वीं पी-सजय़ी राज्य अजयराव के वंषधर निकुम्भ वंषी राजस्थान अलवर, मंगलग-सजय़, जैसलमेर होते हुए गुजरात, सौराट्र गये, फिर पांचाल, मध्यदेश गये। अलवर में दुर्ग निकुम्भ वंशी (कठ क्षत्रिय रावी नदी के कोठ से (विस्थापित कठ-ंगण) क्षत्रियों ने बनवाया (राज्य मंगलग-सजय़), सौराष्ट्र में काठियावाड़ की स्थापना की । मध्यदेश के पांचाल में कठेहर राज्य की स्थापना सन् 648 से 720 ई. तक (कन्नौज के पतन के पश्चात्) की। यहां अहिक्षेत्र के पास रामनगर गांव मे ंराजधानी स्थापित की, ऊंचा गांव म-हजयगांवा को सैनिक छावनी बनाया। यहां पर शासक हंसदेव, रहे, इनके पुत्र हंसबेध राजा बने-ं816 ई. तक- इसी वंश में निकुम्भवंश कठेहरिया रामश्शाही (राम सिंह जी ) ने रामपुर गांव को एक नगर का रूप दिया और 909 ई में कठेहर- रोहिलखण्ड प्रान्त की राजधानी रामपुर में स्थापित की। यहां पर कठ क्षत्रियों ने 11 पी-सजय़ी शासन किया इसी वंश में महापराक्रमी, विधर्मी संहारक राजा रणवीर
सिंह रोहिला का जन्म हुआ।
वंश वृक्ष इस प्रकार पाया गया
रामपुर संस्थापक राजा राम सिंह उर्फ रामशाह 909 ई. में 966 विक्रमी , 3 पौत्र- बीजयराज 4. करणचन्द 5. विम्रहराज 6. सावन्त सिंह (रोहिलखण्ड का विस्तार गंगापार कर यमुना तक किया,) सिरसापाल के राज्य सरसावा में एक किले का निर्माण कराया। (दशवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध) नकुड रोड पर किले को आज यमुना द्वारा ध्वस्त एक टीले के रूप में देखा जा सकता है। 7. जगमाल 8. रणवीर सिंह 9. धिंगतराम 10 गोकुल सिंह 11 महासहाय 12. त्रिलोकचन्द 13. नौरंग देव (पिंगू को परास्त किया) (राजपूत गजट लाहौर 04.06.1940 द्वारा डा0
सन्त सिंह चैहान)
रामपुर का रोहिला किला, राजा रणवीर सिंह, दिल्ली में गुलामवंश का शासन
गुलाम सेनापति नासिरूद्दीन चंगेज उर्फ नासिरूद्दीन महमूद, सन् 1253 ई0, गुलाम वंश ने दोआब, कठेहर, शिवालिक पंजाब, बिजनौर आदि क्षेत्रों पर विजय पाने के लिए दमनकारी अभियान किया। इतने अत्याचार , मारकाट तबाही मचाई कि विदे्राह करने वाले स्थानीय शासक, बच्चे व स्त्रियंा भी सुरक्षित नहीं रही। ऐसी विषम परिस्थिति में रोहिल खण्ड के रोहिला शासकों ने दिल्ली सल्तनत के सूबेदार‘ ताजुल मुल्क इज्जूददीन डोमिशी‘ को मार डाला। दिल्ली सल्तनत के लिये यह घटना भीषण चुनौती सम-हजयी गई। इस समय रामपुर के राजा रणवीर सिंह थे । उन्होनंे दिल्ली सल्तनत के विरूद्ध अपनी क्रान्तिकारी प्रवृत्ति को सजीव बनाये रखा। नासिरूद्दीन महमूद (चंगेज) इस घटना से उद्वेलित हो उठा और सहारनपुर ‘ उशीनर प्रदेश‘ के मण्डावार व मायापुर से 1254 ई0 में गंगापार कर गया और विद्रोह को दबाता हुआ, रोहिलखण्ड को रौदता हुआ बदांयू पहुंचा। वहां उसे ज्ञात हुआ कि रामपुर में राजा रणवीर सिंह के साथ लोहे के कवचधारी 84 रोहिले है जिनसे विजय पाना टे-सजय़ी खीर है। इस समय दिल्ली की शासन व्यवस्था बलबन के हाथों में थी। सूचना दिल्ली भेजी गई। दिल्ली दरबार में सन्नाटा हो गया कि एक छोटे राज्य कठेहरखण्ड के रोहिलों से कैसे छीना जाए। नासिरूद्दीन चंगेज (महमूद) ने तलवार व बीड़ा उठाकर राजा रणवीर सिंह के साथ युद्ध करने की घोषणा की। रामपुर व पीलीभीत के बीच मैदान में पठानों व रोहिलों में विकट संघर्ष हुआ।
वशिष्ठ गोत्र के 84 लोहे के कवचधारी रन्धेलवंशी सेना नायकों की सेना के सामने नासिरूद्दीन की सेना के पैर उखड़ गये।
नासिरूद्दीन चंगेज को बन्दी बना लिया गया। बची हुई सेना के हाथी व घोडे तथा एक लाख रूपये महाराज रणवीर सिंह को देने की प्रार्थना पर आगे ऐसा अत्याचार न करने की शपथ लेकर नासिरूद्दीन महमूद ने प्राण दान मांग लिया। क्षात्र धर्म के अनुसार शरणागत को अभयदान देकर राजा रणवीर सिंह ने उसे छोड़ दिया। परन्तु धोखेबाज महमूद जो राजा रणवीर सिंह पर विजय पाने का बीड़ा उठाकर दिल्ली से आया था, षडयंत्रों में लग गया। राजा रणवीर सिंह का एक दरबारी पं. गोकुलराम पाण्डेय था। उसे रामपुर का राजा नियुक्त करने का लालच देकर महमूद ने विश्वास में ले लिया और रामपुर के किले का भेद लेता रहा। पं. गोकुल राम ने लालच के वशीभूत होकर विधर्मी को बता दिया कि रक्षांबधन के दिन सभी राजपूत निःशस्त्र होकर शिव मन्दिर मंे शस्त्र पूजा करेंगें। वशिष्ठ गोत्र के कठेहरिया राजपूतों मंे शिव उपासना कर शक्ति प्राप्त करने की भावना जीवित है।यह शिव मन्दिर किले के दक्षिण द्वार के समीप है। यह सुनकर महमूद का चेहरा खिल उठा और दिल्ली से भारी सेना को मंगाकर जमावड़ा प्रारम्भ कर दिया रक्षाबन्धन का दिन आ गया। सभी किले में उपस्थित सैनिक, सेनाायक अपने-ंअपने शस्त्रों को उतार कर पूजा स्थान पर शिव मन्दिर ले जा रहे थे। गोकुल राम पाण्डेय यह सब सूचना विधर्मी तक पहुचंता रहा। सामने श्वेत ध्वज रखकर दक्षिण द्वार पर पठानों की गुलामवंशी सेना एकत्र हो गयी। पूजा में तल्लीन राज पुत्रों को पाकर गोकुलराम पाण्डेय ने द्वार खोल दिया।
शिव उपासना में रत सभी उपस्थितों को घेरे में ले लिया गया। घमासान युद्ध छिड़ गया परन्तु ऐसी गद्दारी के कारण राजा रणवीर सिंह वीरगति को प्राप्त हुए। नासिरूद्दीन ने पं. गोकुल राम से कहा कि जिसका नमक खाया अब तुम उसी के नहीं हुए तो तुम्हारा भी संहार अनिवार्य है। नमक हरामी को जीने का हक नहीं है। गोकुल का धड़ भी सिर से अलग पड़ा था। सभी स्त्री बच्चों को लेकर रणवीर सिंह का भाई सूरत सिंह किले से पलायन कर चरखी दादरी में अज्ञातवास को चला गया। महारानी तारादेवी राजा रणवीर सिंह के साथ सती हो गई।
रामपुर में किले के खण्डरात, सती तारादेवी का मन्दिर तथा उनका राजमहल अभी तक मौजूद है, जो क्षात्र धर्म का परिचायक व रामपुर में रेहिले क्षत्रियों की कठ-शाखा के शासन काल की याद ताजा करता है जिन्होंने अपना सर्वस्व बलिदान कर क्षात्र धर्म की रक्षा की। गुलाम वंश, सल्तनत काल में विधर्मी की पराधीनता कभी स्वीकार नहीं की। अन्तिम सांस तक दिल्ली सल्तनत से युद्ध किया और रोहिलखण्ड को स्वतंत्र राज्य बनाये रखा। निरन्तर संघर्ष करते रहे राजा रणवीर सिंह का बलिदान व्यर्थ नहीं , सदैव तुगलक, मंगोल , मुगलों आदि से विद्रोह किया और स्वतंत्र रहने की भावना को सजीव रखा। राणा रणवीर सिंह के वंशधर आज भी रोहिला-ंक्षत्रियों में पाए जाते है।
Monday, February 5, 2018
काठेर रोहिल्लख़ंड राजपूत!
ये कतेहरिया काठी निकुम्भ वन्स के रोहिलखण्ड के राजा थे 1253 में इनके शासन काल मे दिल्ली सल्तनत के इल्तुतमिश के पुत्र एवम सेनापति नासिरुद्दीन महमूद उर्फ चंगेज जो बहाराम वन्स का मुसलमान आक्रांता था दिल्ली दरबार मे कसम लेकर आया कि रोहिलखण्ड पर विजय पाकर ही लौटेगा 30000 की विशाल सेना लेकर उसने रोहिलखण्ड पर हमला किया पीलीभीत ओर रामपुर के बीच मे किसी स्थान पर मुसलमानों को 6000 रोहिले राजपूतो ने घेर लिया तथा भयंकर युद्ध हुआ रोहिले बहादुर थे लोहे के कवचधारी थे नासिरुद्दीन चंगेज की सेना को काट डाला गया बचे हुए मुसलमान भाग खड़े हुए
नासिरुद्दीन ने प्राणदान मांगे
सभी धन दौलत रणवीर सिंह के चरणों मे रख गिड़गिड़ाया
राजा रणवीर सिंह कठोडा ने क्षात्र धर्म रक्षार्थ शरणागत को क्षमा दान दे दिया
परन्तु वह दिल्ली दरबार से कसम लेकर आया था क्या मुह दिखाए यह सोच कर रामपुर के जंगलों में छिप गया और रास्ते खोजने में लगा कि राजा को कैसे पराजित किया जाए
क्योकि कितनी भी मुसलमान सेना दिल्ली से मंगवाता रोहला राजपूत इतने बहादुर थे कि उनके सामने नही टिक पाती उसने छल प्रपंच धोखा करने की सोची
रामपुर के किले के एक दरबारी हरिद्वार निवासी पण्डे गोकुल राम उर्फ गोकुल चंद को लालच दिया और रक्षा बंधन के दिन शस्त्र पूजन के समय निश्शस्त्र रोहिले राजपूतो पर हमला करने का परामर्श दे दिया
चंगेज ने दिल्ली से कुमुद ओर सेना मंगवाई ओर जंगलो में छिपा दी पण्डे ने सफेद ध्वज के साथ चंगेज को राजा से किले का द्वार खोल मिलवाया जबकि राजपूत पण्डे का इंतजार कर रहे थे कि कब आये और पूजा शुरू हो
पण्डे ने तो धोखा कर दिया था राजा ने सफेद ध्वज देख सन्धि प्रस्ताब समझ समर्पण समझ आने का संकेत दिया
मालूम हुआ कि पंडा किले के चारो द्वार खोल कर आया था
निहत्थे राजपूतो पर तीब्रता से मुसलमान सेना चारो तरफ से टूट पड़ी
राजपूतो को शाका कर मरमिटने का आदेश रणवीर सिंह ने दे दिया और मुसलमानों को सबक सिखाने के लिए भिड़गये
थे निहत्थे लड़े बहुत पंरन्तु मारे गए
राजा रणवीर सिंह का बलिदान हुआ
रानी तारावती सभी क्षत्राणियो के साथ ज्वाला पान कर जौहर कर गयी
किले को मुसलमान घेर चुके थे
रणवीर सिंह का भाई सूरत सिंह अपने 338 साथियों के साथ निकल गया और हरियाणा में 1254 में चरखी दादरी आकर प्रवासित हुआ
हरिद्वार पंडो ने रणवीर सिंह की वंशावलि में झूठ लिखा कि उसकी ओलाद बंजारा हो गयी
कितना तुष्टिकरण होता था तब भी इतिहास लेखन में
जबकि रोहिले राजपूतो के राज भाट रायय भीम राज निवासी बड़वा जी का बड़ा तुंगा जिला जयपुर की पोथी में मिला कि सूरत सिंह चरखी दादरी आ बसा था
राजा रणवीर सिंह का यह बलिदान याद रखेगा हिंदुस्तान
Monday, December 25, 2017
कटेहर नरेश हरिसिंह
कटेहर नरेश हरिसिंह ने दी चुनौती कटेहर rohillkhand को ही कहते हैं जाने कितने वंश गुलाम वंश सय्यद वंश मुगल वंश के सुल्तान सेनापति आदि
ख़तम हो गए हम को झुकाने में लेकिन रोहिल्ला न झुका था न झुका है और न झुके
गाहम रोहिल्ला है इन वीरों के वंशज हैं हम ‘कटेहर’ अपनी
स्वतंत्रता प्रेमी भावना के लिए पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों के काल में भी
विख्यात रहा था। अब भी उसने अपने इस परंपरागत गुण को यथावत बनाये रखा। वहां
के राजा हरिसिंह ने नये मुस्लिम सुल्तान के सिंहासनारूढ़ होने से पूर्व
सल्तनत में सिंहासन के लिए मचे घमासान के वर्षों में ही अपनी स्वतंत्रता की
घोषणा कर दी थी। इसलिए इस हिंदू स्वतंत्र शासक का दमन करना मुस्लिम
सुल्तान खिज्र खां के लिए अवश्यक हो गया था। फलस्वरूप खिज्र खां ने हरिसिंह
को अपने आधीन करने का निर्णय लिया। खिज्र खां ने अपने विश्वससीन ताजुल
मुल्क को 1414-15ई में कटेहर पर आक्रमण करने के लिए बड़ी सेना देकर भेजा।
राजा हरिसिंह ने विशाल सेना का सामना न करके पीछे हटकर घाटियों मे ंजाना
उचित समझा। ताजुल मुल्क ने कटेहर निवासियों को जितना लूट सकता था, या मार
सकता था, उतना लूटा भी और मारा भी। तत्पश्चात उसने नदी पार कर खुद कम्पिला,
सकिया और बाथम को लूटा। ‘तारीखे मुबारक शाही’ के अनुसार मुस्लिम सेना ने
राजा का घाटियों में भी प्रतिरोध किया तो उसने कर देना स्वीकार कर लिया।
हारकर भी राजा ने हार नही मानी इसके पश्चात शाही कि सेना जैसे ही पीछे हटी और राजधानी दिल्ली पहुंचीे तो राजा हरिसिंह ने अपनी स्वतंत्रता की पुन: घोषणा कर दी। अगले वर्ष 1416-17 ई. में ताजुल्मुल्क को राजा हरिसिंह के शौर्य के दमन के लिए पुन: सेना सहित कटेहर की ओर प्रस्थान करना पड़ा। इस बार भी उसने राजा को ‘कर तथा उपहार’ देने के लिए पुन: बाध्य कर किया। राजा ने स्वतंत्र रहने की सौगंध उठा ली थी
राजा ने कर तथा उपहार देकर शत्रु को दिल्ली भेज दिया, पर उसके दिल्ली पहुंचते ही पुन: कटेहर की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। मानो राजा ने स्वतंत्र रहने की सौगंध खा ली थी और उसे सुल्तानों की अधीनता किसी भी सीमा तक स्वीकार्य नही थी। ऐसी परिस्थितियों में पुन: अगले ही वर्ष (1418-1419ई में) कटेहर के हिंदू राजा का मस्तक झुकाने के लिए ताजुल मुल्क पुन: वहां भेजा गया। ताजुल मुल्क अपनी विशाल सेना के साथ दिल्ली से चलकर कटेहर आ धमका। राजा हरिसिंह ने शत्रु के आ धमकने की सूचना पाकर अपने राज्य के खेत खलियानों को स्वयं ही अपनी प्रजा से विनष्ट कराना आरंभ कर दिया। जिससे कि शत्रु को किसी भी प्रकार से अन्नादि उपलब्ध न होने पाये। राजा पुन: आंवला की घाटी में प्रविष्ट हो गया। शाही सेना ने राजा का घाटी तक पीछा किया। फलस्वरूव राजा और शाही सेना के मध्य प्रबल संघर्ष इस घाटी में हुआ। ‘तारीखे मुबारकशाही’ के अनुसार राजा पराजित हुआ और कुमायूं के पर्वत की ओर चला गया। शाही सेना के 20 हजार घुड़सवारों ने उसका पीछा किया, परंतु राजा को पकडऩे में शाही सेेना पुन: असफल रही। राजा से असफल होकर पांच दिन के असफल संग्राम के पश्चात शाही सेना दिल्ली लौट आयी। ध्यान देने योग्य तथ्य ध्यान देने की बात ये है कि दिल्ली लौटी सेना या उसके सेनापति राजा हरिसिंह को परास्त करके उसे बंदी बनाने में हर बार असफल होते रहे और राजा के भय के कारण कभी भी उसके राज्य पर अपना राज्यपाल नियुक्त करने या उसे सीधे अपने साम्राज्य के आधीन लाने का साहस नही दिखाया। फलस्वरूप इस बार भी राजा ने अपने राज्य पर पुन: अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। तब सुल्तान स्वयं कटेहर की ओर सेना लेकर बढ़ा। फरिश्ता का कहना है कि सुल्तान ने कटेहर को नष्ट किया और पुन: दिल्ली लौट आया। परंतु हरिसिंह इसके उपरांत भी स्वतंत्र रूप से शासन करता रहा। इतिहास को ऐसे भी पढ़ा जा सकता है पांच सैनिक अभियानों के लिए एक छोटे से हिंदू राजा ने मुस्लिम सल्तनत को विवश किया, पर्याप्त विनाश झेला और इसके उपरांत भी अपनी स्वतंत्रता को खोया नही यह इतिहास है। इन सैनिक अभियानों से मुस्लिम सल्तनत दुर्बल हुई। क्योंकि हर वर्ष एक बड़ी सेना को सैनिक अभियान के लिए भेजना और कोई विशेष उपलब्धि के बिना ही सेना का यूं ही लौट आना उस युग में बड़ा भारी पड़ता था। राजा ने निश्चित रूप से वीरता पूर्वक मुस्लिम सेना से संघर्ष नही किया, यह हम मानते हैं।परंतु उसके साहस की भी उपेक्षा नही की जा सकती कि शाही सेना के पीठ फेरते ही वह अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर देता था। इस कार्य में कटेहर की धर्मभक्त और स्वतंत्रता प्रेमी हिंदू जनता भी साधुवाद की पात्र थी, क्योंकि उसने भी अपने शासक के विरूद्घ कभी न तो विद्रोह किया और ना ही शाही सेना के सामने समर्पण कर इस्लाम स्वीकार किया। उसने हर बार अपने शासक के निर्णय को उचित माना और उसके निर्णय के साथ अपनी सहमति व्यक्त की। इतिहास को इस दृष्टिकोण से भी पढ़ा जाना अपेक्षित है। सुल्तान को स्वयं चलाना पड़ा सैनिक अभियान यहिया और निजीमुद्दीन अहमद के वर्णनों से स्पष्ट होता है कि सुल्तान मुबारक शाह को 1422-23 ई और 1424 ई में भी कटेहर के लिए सैन्य अभियान चलाना पड़ा था। इन अभियानों का नेतृत्व भी सुल्तान मुबारकशाह ने ही किया था। इस प्रकार मुबारकशाह को हरिसिंह ने कभी भी सुखपूर्वक शासन नही करने दिया। उसे जितना दुखी किया जा सकता था, उतना किया। 1422-23 ई. में तो मुबारकशाह हरिसिंह से कोई कर भी प्राप्त नही कर सकता था। याहिया खां और निजामुद्दीन हमें बताते हैं कि इसके उपरांत सुल्तान गंगा नदी पार कर दोआब क्षेत्र की ओर निकल गया था। कटेहर की ओर फिर कोई नही आया सैय्यद शासक
यह एक तथ्य है कि मुबारकशाह के पश्चात कटेहर की ओर अन्य किसी सैय्यद वंशीय सुल्तान ने पुन: कोई सैन्य अभियान नही चलाया। फलस्वरूप राजा हरिसिंह का साहस कटेहर के लिए वरदान सिद्घ हुआ और यह राज्य अपनी स्वतंत्रता स्थापित किये रखने में सफल रहा। भारत की अद्भुत परंपरा पराजय में भी आत्मनिष्ठ, स्वतंत्रतानिष्ठ, धर्मनिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ और स्वसंस्कृतिनिष्ठ बने रहने की भारत और भारत के लोगों की विश्व में अदभुत परंपरा है। अपने इसी अदभुत गुण के कारण कितने ही आघातों-प्रत्याघातों को सहन करके भी भारत वैसे ही पुनर्जीवित होता रहा, जैसे एक फीनिक्स नाम का पक्षी अपनी राख में से पुनर्जीवित हो उठता है। अलाउद्दीन के काल तक जितने परिश्रम से यहां मुस्लिम साम्राज्य खड़ा किया जा रहा था, उतने पुनरूज्जीवी पराक्रम के प्रत्याघात से हिंदू शक्ति उसे भूमिसात करने का अतुलनीय प्रयास कर रही थी। उसी पुनरूज्जीवी पराक्रम के प्रत्याघात की पताका का प्रतीक राजा हरिसिंह कटेहर में बन गया था। जिस शक्ति का प्रयोग मुस्लिम सुल्तान देश के अन्य भागों में हिंदू पराक्रम को पराजित करने के लिए कर सकते थे, उसे बार-बार हरिसिंह कटेहर में व्यर्थ में ही व्यय करा डालता था। शत्रु पराभव की ओर चल दिया यह ऐसा काल था जिसमें भारत की हिंदू शक्ति ने अपने पराक्रम से शत्रु के विजय अभियानों पर तो पूर्ण विराम लगा ही दिया था, साथ ही शत्रु को पराभव की ओर निर्णायक रूप से धकेलने का भी कार्य किया। क्योंकि इसके पश्चात पूरे देश में दिल्ली की सल्तनत पुन: उस ऊंचाई तक नही पहुंच पायी जिस ऊंचाई तक उसने अलाउद्दीन के काल में अपना विस्तार कर लिया था।
यह प्राचीन पराक्रम की प्रतिच्छाया थी सर ऑरेल स्टीन (1862-1943ई.) हंगरी निवासी थे। जिन्होंने भारत के पराक्रमी और वैभव संपन्न अतीत पर व्यापक अनुसंधान किया था। उनके अनुसंधानात्मक कार्यों से भारत के विषय में लोगों के ज्ञान में पर्याप्त वृद्घि भी हुई। वह लिखते हैं :-‘‘भारतीय सांस्कृतिक प्रभाव के उत्तर दिशा में मध्य एशिया से लेकर दक्षिण में इण्डोनेशिया तक और पर्शिया की सीमा से लेकर चीन तथा जापान तक विशाल विस्तार ने यह सिद्घ कर दिया है कि प्राचीन भारत सभ्यता का एक दीप्तिमान केन्द्र था जिसे अपने धार्मिक विचार तथा कला साहित्य द्वारा उन वृहत्तर एशिया के एक बड़े क्षेत्र में बिखरे तथा एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न जातियों पर गहरा प्रभाव छोडऩे के लिए ही विधाता ने बनाया था।’’ इसी प्रसंग में डा. आर.सी. मजूमदार अपनी पुस्तक ‘एंशियंट इंडिया’ में जो कुछ लिखते हैं वह भी उल्लेखनीय है- ‘प्राचीन भारतीय अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार धन-संचय तथा व्यापार, उद्योग तथा वाणिज्य के विकास के प्रति अत्यंत सजग थे। इन विभिन्न मार्गों से प्राप्त भौतिक समृद्घि समाज के वैशिष्टय प्रदत्त ऐश्वर्य तथा सौम्यता से परिलक्षित होती थी। पुरातात्विक प्रमाणों से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी में एक ओर भारत तथा दूसरी ओर मैसोपोटामिया, अरब, फीनिका तथा मिस्र के बीच थल तथा जल मार्ग से निरंतर व्यापारिक संबंध थे। चीनी साहित्य ग्रंथों में भारत तथा चीन के मध्य ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी में समुद्री तथा व्यापारिक गतिविधियों का उल्लेख है। हाल ही की खुदाईयों से फिलीपीन्स मलयद्वीप तथा इंडोनेशिया के साथ पुराने व्यापारिक संबंध सुनिश्चित होते हैं, जो ऐतिहासिक काल तक चलते रहे। यह सामुद्रिक वैशिष्टय ही था-जिसके कारण से भारत व चीन के मध्य जल तथा थल मार्ग से यातायात विकसित होने के कुछ ही समय के पश्चात भारतीय अपने भारतीय द्वीप समूहों में बस्तियां बसा सके।
भारत यूनानी संसार के भी घनिष्ट संपर्क में आया। प्राचीन अधिकृत सूत्रों से यह भी ज्ञात होता है कि टोले भी फिलैडेलफस (ईसा पूर्व 285-246) के प्रदर्शनों में भारतीय महिलाएं, भारतीय शिकारी कुत्ते, भारतीय गायें और भारतीय मसालों से लदे ऊंट दिखाई पड़ते थे और यह भी कि मिश्र के शासकों की आनंद विहार नौकाओं के स्वागत कक्ष भारतीय हीरे पन्नों से जड़े होते थे। इन सबसे यह पता चलता है कि भारत तथा पश्चिमी देशों के सुदूर अफ्रीकी तटों तक घना समुद्री व्यापार होता था, सामान को तटों से थलमार्ग से नील नदी तक ले जाया जाता था, और वहां से नदी मार्ग द्वारा उस समय के विशाल वाणिज्य केन्द्र अलेग्जेण्ड्रिया तक। ईसा की प्रथम शताब्दी में अफ्रीकी तट से परे एक वाणिज्यिक बस्ती थी। भारतीयों के साहसिक कार्य उन्हें सुदूर उत्तरी सागर तक ले गये, जबकि उनके कारवां एशिया के एक छोर से दूसरे छोर तक फेेल गये।’ उस पुनरूज्जीवी पराक्रम को प्रणाम
कोई भी जाति जब तक अपने जातीय गौरव, जातीय पराक्रम और जातीय स्वाभिमान से भरी रहती है तब तक उसे मिटाया नही जा सकता। हिंदू के पुनरूज्जीवी पराक्रम के पीछे उसकी एक गौरवपूर्ण इतिहास परंपरा खड़ी थी, जो उसके पताका प्रहरियों को जातीय पराक्रम और जातीय स्वाभिमान के श्लाघनीय गुणों से भरते थे। जब व्यक्ति निर्माण और सृजन के कीर्तिमान स्थपित करता है, तो उसे आत्मबल मिलता है, जिससे वह लंबी दूरी की यात्रा बिना थकान अनुभव किये कर सकता है, और यदि उस यात्रा में कहीं कोई व्यवधान आता है तो उसे बड़े धैर्य और संतोष भाव से दूर भी कर सकता है। जैसा कि भारत इस काल में कर रहा था।क्रूरता शत्रु उत्पन्न करती है इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति विध्वंस और विनाश के कीर्तिमान स्थापित करता है तो उस विध्वंस और विनाश के पापकृत्यों का भार उसके आत्मबल को धिक्कारता है, और व्यक्ति भीतर से दुर्बल हो जाता है। मुस्लिम आक्रांताओं के साथ यही हो रहा था। क्रूरता उसकी स्वत: सिद्घ दुर्बलता थी, जिसे इतिहास ने उसकी वीरता सिद्घ किया है। क्योंकि वीरता शत्रु उत्पन्न नही करती है, अपितु शत्रु को शांत करती है और क्रूरता सदा शत्रु उत्पन्न करती रहती है। भारत की सात्विक वीरता से शत्रु को मित्र बनाया और इस्लाम की तामसिक क्रूरता ने मित्र को शत्रु बनाया। जिसमें वह स्वयं ही उलझकर रह गया अपने भ्रातृत्व और सहचर्य के विस्तार के लिए तथा इस्लामिक कलह, कटुता और क्लेश के वातावरण का प्रतिरोध करने के लिए यदि राजा हरिसिंह तत्कालीन सुल्तानों को बारम्बार दुखी कर रहे थे तो इस राष्ट्रभक्ति में दोष क्या था?
रोहिल्ला राव खड्ग सिंह
रोहिल्ला राव हरि सिंह
रोहिल्ला राव नर सिंह
रोहिल्ला राव जगत सिंह
सभी उसी महान विरासत के महान स्तम्भ है जो महाराजा रणवीर सिंह रोहिल्ला जी ने हमें दी है
जय महाराजा रणवीर सिंह रोहिल्ला जी
हारकर भी राजा ने हार नही मानी इसके पश्चात शाही कि सेना जैसे ही पीछे हटी और राजधानी दिल्ली पहुंचीे तो राजा हरिसिंह ने अपनी स्वतंत्रता की पुन: घोषणा कर दी। अगले वर्ष 1416-17 ई. में ताजुल्मुल्क को राजा हरिसिंह के शौर्य के दमन के लिए पुन: सेना सहित कटेहर की ओर प्रस्थान करना पड़ा। इस बार भी उसने राजा को ‘कर तथा उपहार’ देने के लिए पुन: बाध्य कर किया। राजा ने स्वतंत्र रहने की सौगंध उठा ली थी
राजा ने कर तथा उपहार देकर शत्रु को दिल्ली भेज दिया, पर उसके दिल्ली पहुंचते ही पुन: कटेहर की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। मानो राजा ने स्वतंत्र रहने की सौगंध खा ली थी और उसे सुल्तानों की अधीनता किसी भी सीमा तक स्वीकार्य नही थी। ऐसी परिस्थितियों में पुन: अगले ही वर्ष (1418-1419ई में) कटेहर के हिंदू राजा का मस्तक झुकाने के लिए ताजुल मुल्क पुन: वहां भेजा गया। ताजुल मुल्क अपनी विशाल सेना के साथ दिल्ली से चलकर कटेहर आ धमका। राजा हरिसिंह ने शत्रु के आ धमकने की सूचना पाकर अपने राज्य के खेत खलियानों को स्वयं ही अपनी प्रजा से विनष्ट कराना आरंभ कर दिया। जिससे कि शत्रु को किसी भी प्रकार से अन्नादि उपलब्ध न होने पाये। राजा पुन: आंवला की घाटी में प्रविष्ट हो गया। शाही सेना ने राजा का घाटी तक पीछा किया। फलस्वरूव राजा और शाही सेना के मध्य प्रबल संघर्ष इस घाटी में हुआ। ‘तारीखे मुबारकशाही’ के अनुसार राजा पराजित हुआ और कुमायूं के पर्वत की ओर चला गया। शाही सेना के 20 हजार घुड़सवारों ने उसका पीछा किया, परंतु राजा को पकडऩे में शाही सेेना पुन: असफल रही। राजा से असफल होकर पांच दिन के असफल संग्राम के पश्चात शाही सेना दिल्ली लौट आयी। ध्यान देने योग्य तथ्य ध्यान देने की बात ये है कि दिल्ली लौटी सेना या उसके सेनापति राजा हरिसिंह को परास्त करके उसे बंदी बनाने में हर बार असफल होते रहे और राजा के भय के कारण कभी भी उसके राज्य पर अपना राज्यपाल नियुक्त करने या उसे सीधे अपने साम्राज्य के आधीन लाने का साहस नही दिखाया। फलस्वरूप इस बार भी राजा ने अपने राज्य पर पुन: अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। तब सुल्तान स्वयं कटेहर की ओर सेना लेकर बढ़ा। फरिश्ता का कहना है कि सुल्तान ने कटेहर को नष्ट किया और पुन: दिल्ली लौट आया। परंतु हरिसिंह इसके उपरांत भी स्वतंत्र रूप से शासन करता रहा। इतिहास को ऐसे भी पढ़ा जा सकता है पांच सैनिक अभियानों के लिए एक छोटे से हिंदू राजा ने मुस्लिम सल्तनत को विवश किया, पर्याप्त विनाश झेला और इसके उपरांत भी अपनी स्वतंत्रता को खोया नही यह इतिहास है। इन सैनिक अभियानों से मुस्लिम सल्तनत दुर्बल हुई। क्योंकि हर वर्ष एक बड़ी सेना को सैनिक अभियान के लिए भेजना और कोई विशेष उपलब्धि के बिना ही सेना का यूं ही लौट आना उस युग में बड़ा भारी पड़ता था। राजा ने निश्चित रूप से वीरता पूर्वक मुस्लिम सेना से संघर्ष नही किया, यह हम मानते हैं।परंतु उसके साहस की भी उपेक्षा नही की जा सकती कि शाही सेना के पीठ फेरते ही वह अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर देता था। इस कार्य में कटेहर की धर्मभक्त और स्वतंत्रता प्रेमी हिंदू जनता भी साधुवाद की पात्र थी, क्योंकि उसने भी अपने शासक के विरूद्घ कभी न तो विद्रोह किया और ना ही शाही सेना के सामने समर्पण कर इस्लाम स्वीकार किया। उसने हर बार अपने शासक के निर्णय को उचित माना और उसके निर्णय के साथ अपनी सहमति व्यक्त की। इतिहास को इस दृष्टिकोण से भी पढ़ा जाना अपेक्षित है। सुल्तान को स्वयं चलाना पड़ा सैनिक अभियान यहिया और निजीमुद्दीन अहमद के वर्णनों से स्पष्ट होता है कि सुल्तान मुबारक शाह को 1422-23 ई और 1424 ई में भी कटेहर के लिए सैन्य अभियान चलाना पड़ा था। इन अभियानों का नेतृत्व भी सुल्तान मुबारकशाह ने ही किया था। इस प्रकार मुबारकशाह को हरिसिंह ने कभी भी सुखपूर्वक शासन नही करने दिया। उसे जितना दुखी किया जा सकता था, उतना किया। 1422-23 ई. में तो मुबारकशाह हरिसिंह से कोई कर भी प्राप्त नही कर सकता था। याहिया खां और निजामुद्दीन हमें बताते हैं कि इसके उपरांत सुल्तान गंगा नदी पार कर दोआब क्षेत्र की ओर निकल गया था। कटेहर की ओर फिर कोई नही आया सैय्यद शासक
यह एक तथ्य है कि मुबारकशाह के पश्चात कटेहर की ओर अन्य किसी सैय्यद वंशीय सुल्तान ने पुन: कोई सैन्य अभियान नही चलाया। फलस्वरूप राजा हरिसिंह का साहस कटेहर के लिए वरदान सिद्घ हुआ और यह राज्य अपनी स्वतंत्रता स्थापित किये रखने में सफल रहा। भारत की अद्भुत परंपरा पराजय में भी आत्मनिष्ठ, स्वतंत्रतानिष्ठ, धर्मनिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ और स्वसंस्कृतिनिष्ठ बने रहने की भारत और भारत के लोगों की विश्व में अदभुत परंपरा है। अपने इसी अदभुत गुण के कारण कितने ही आघातों-प्रत्याघातों को सहन करके भी भारत वैसे ही पुनर्जीवित होता रहा, जैसे एक फीनिक्स नाम का पक्षी अपनी राख में से पुनर्जीवित हो उठता है। अलाउद्दीन के काल तक जितने परिश्रम से यहां मुस्लिम साम्राज्य खड़ा किया जा रहा था, उतने पुनरूज्जीवी पराक्रम के प्रत्याघात से हिंदू शक्ति उसे भूमिसात करने का अतुलनीय प्रयास कर रही थी। उसी पुनरूज्जीवी पराक्रम के प्रत्याघात की पताका का प्रतीक राजा हरिसिंह कटेहर में बन गया था। जिस शक्ति का प्रयोग मुस्लिम सुल्तान देश के अन्य भागों में हिंदू पराक्रम को पराजित करने के लिए कर सकते थे, उसे बार-बार हरिसिंह कटेहर में व्यर्थ में ही व्यय करा डालता था। शत्रु पराभव की ओर चल दिया यह ऐसा काल था जिसमें भारत की हिंदू शक्ति ने अपने पराक्रम से शत्रु के विजय अभियानों पर तो पूर्ण विराम लगा ही दिया था, साथ ही शत्रु को पराभव की ओर निर्णायक रूप से धकेलने का भी कार्य किया। क्योंकि इसके पश्चात पूरे देश में दिल्ली की सल्तनत पुन: उस ऊंचाई तक नही पहुंच पायी जिस ऊंचाई तक उसने अलाउद्दीन के काल में अपना विस्तार कर लिया था।
यह प्राचीन पराक्रम की प्रतिच्छाया थी सर ऑरेल स्टीन (1862-1943ई.) हंगरी निवासी थे। जिन्होंने भारत के पराक्रमी और वैभव संपन्न अतीत पर व्यापक अनुसंधान किया था। उनके अनुसंधानात्मक कार्यों से भारत के विषय में लोगों के ज्ञान में पर्याप्त वृद्घि भी हुई। वह लिखते हैं :-‘‘भारतीय सांस्कृतिक प्रभाव के उत्तर दिशा में मध्य एशिया से लेकर दक्षिण में इण्डोनेशिया तक और पर्शिया की सीमा से लेकर चीन तथा जापान तक विशाल विस्तार ने यह सिद्घ कर दिया है कि प्राचीन भारत सभ्यता का एक दीप्तिमान केन्द्र था जिसे अपने धार्मिक विचार तथा कला साहित्य द्वारा उन वृहत्तर एशिया के एक बड़े क्षेत्र में बिखरे तथा एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न जातियों पर गहरा प्रभाव छोडऩे के लिए ही विधाता ने बनाया था।’’ इसी प्रसंग में डा. आर.सी. मजूमदार अपनी पुस्तक ‘एंशियंट इंडिया’ में जो कुछ लिखते हैं वह भी उल्लेखनीय है- ‘प्राचीन भारतीय अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार धन-संचय तथा व्यापार, उद्योग तथा वाणिज्य के विकास के प्रति अत्यंत सजग थे। इन विभिन्न मार्गों से प्राप्त भौतिक समृद्घि समाज के वैशिष्टय प्रदत्त ऐश्वर्य तथा सौम्यता से परिलक्षित होती थी। पुरातात्विक प्रमाणों से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी में एक ओर भारत तथा दूसरी ओर मैसोपोटामिया, अरब, फीनिका तथा मिस्र के बीच थल तथा जल मार्ग से निरंतर व्यापारिक संबंध थे। चीनी साहित्य ग्रंथों में भारत तथा चीन के मध्य ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी में समुद्री तथा व्यापारिक गतिविधियों का उल्लेख है। हाल ही की खुदाईयों से फिलीपीन्स मलयद्वीप तथा इंडोनेशिया के साथ पुराने व्यापारिक संबंध सुनिश्चित होते हैं, जो ऐतिहासिक काल तक चलते रहे। यह सामुद्रिक वैशिष्टय ही था-जिसके कारण से भारत व चीन के मध्य जल तथा थल मार्ग से यातायात विकसित होने के कुछ ही समय के पश्चात भारतीय अपने भारतीय द्वीप समूहों में बस्तियां बसा सके।
भारत यूनानी संसार के भी घनिष्ट संपर्क में आया। प्राचीन अधिकृत सूत्रों से यह भी ज्ञात होता है कि टोले भी फिलैडेलफस (ईसा पूर्व 285-246) के प्रदर्शनों में भारतीय महिलाएं, भारतीय शिकारी कुत्ते, भारतीय गायें और भारतीय मसालों से लदे ऊंट दिखाई पड़ते थे और यह भी कि मिश्र के शासकों की आनंद विहार नौकाओं के स्वागत कक्ष भारतीय हीरे पन्नों से जड़े होते थे। इन सबसे यह पता चलता है कि भारत तथा पश्चिमी देशों के सुदूर अफ्रीकी तटों तक घना समुद्री व्यापार होता था, सामान को तटों से थलमार्ग से नील नदी तक ले जाया जाता था, और वहां से नदी मार्ग द्वारा उस समय के विशाल वाणिज्य केन्द्र अलेग्जेण्ड्रिया तक। ईसा की प्रथम शताब्दी में अफ्रीकी तट से परे एक वाणिज्यिक बस्ती थी। भारतीयों के साहसिक कार्य उन्हें सुदूर उत्तरी सागर तक ले गये, जबकि उनके कारवां एशिया के एक छोर से दूसरे छोर तक फेेल गये।’ उस पुनरूज्जीवी पराक्रम को प्रणाम
कोई भी जाति जब तक अपने जातीय गौरव, जातीय पराक्रम और जातीय स्वाभिमान से भरी रहती है तब तक उसे मिटाया नही जा सकता। हिंदू के पुनरूज्जीवी पराक्रम के पीछे उसकी एक गौरवपूर्ण इतिहास परंपरा खड़ी थी, जो उसके पताका प्रहरियों को जातीय पराक्रम और जातीय स्वाभिमान के श्लाघनीय गुणों से भरते थे। जब व्यक्ति निर्माण और सृजन के कीर्तिमान स्थपित करता है, तो उसे आत्मबल मिलता है, जिससे वह लंबी दूरी की यात्रा बिना थकान अनुभव किये कर सकता है, और यदि उस यात्रा में कहीं कोई व्यवधान आता है तो उसे बड़े धैर्य और संतोष भाव से दूर भी कर सकता है। जैसा कि भारत इस काल में कर रहा था।क्रूरता शत्रु उत्पन्न करती है इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति विध्वंस और विनाश के कीर्तिमान स्थापित करता है तो उस विध्वंस और विनाश के पापकृत्यों का भार उसके आत्मबल को धिक्कारता है, और व्यक्ति भीतर से दुर्बल हो जाता है। मुस्लिम आक्रांताओं के साथ यही हो रहा था। क्रूरता उसकी स्वत: सिद्घ दुर्बलता थी, जिसे इतिहास ने उसकी वीरता सिद्घ किया है। क्योंकि वीरता शत्रु उत्पन्न नही करती है, अपितु शत्रु को शांत करती है और क्रूरता सदा शत्रु उत्पन्न करती रहती है। भारत की सात्विक वीरता से शत्रु को मित्र बनाया और इस्लाम की तामसिक क्रूरता ने मित्र को शत्रु बनाया। जिसमें वह स्वयं ही उलझकर रह गया अपने भ्रातृत्व और सहचर्य के विस्तार के लिए तथा इस्लामिक कलह, कटुता और क्लेश के वातावरण का प्रतिरोध करने के लिए यदि राजा हरिसिंह तत्कालीन सुल्तानों को बारम्बार दुखी कर रहे थे तो इस राष्ट्रभक्ति में दोष क्या था?
रोहिल्ला राव खड्ग सिंह
रोहिल्ला राव हरि सिंह
रोहिल्ला राव नर सिंह
रोहिल्ला राव जगत सिंह
सभी उसी महान विरासत के महान स्तम्भ है जो महाराजा रणवीर सिंह रोहिल्ला जी ने हमें दी है
जय महाराजा रणवीर सिंह रोहिल्ला जी
Monday, December 11, 2017
रामपुर रोहिलखण्ड
रामपुर रोहिलखण्ड के राजकुमार थे रणवीर सिंह इनका जन्म रामपुर के किले
में ही हुआ था इनके पिता विधर्मी संघरक राजा त्रिलोक सिंह थे इनकी पत्नी
का नाम तारा देवी था जो सीकरी के राजा की पुत्री थी इनका एक छोटा भाई भी था
सुजान सिंह उर्फ सूरत सिंह जो 1273 विक्रमी में अपने 368 साथियों सहित
चरखी दादरी हरियाणा में आ गया था
Ranveer
Singh was the prince of rampur, he was born in the fort of rampur. His
Father was the name of his wife, who was the daughter of his wife who
was a daughter of the king of sikri, he was a younger brother, who In
1273, with his 368 colleagues, charkhi dadri came in Haryana.
Wednesday, November 22, 2017
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